भगवान् के ‘विशेष कार्य’ हेतु १७ सितम्बर १८९२ ई०, दिन शनिवारको आपका जन्म शिलांगमें हुआ। कुल देवता श्रीहनुमानजीकी कृपासे जन्म होनेके कारण आपका नाम ‘हनुमानप्रसाद’ पड़ा। युवावस्थामें देश-सेवा—समाजसेवाकी प्रवृत्ति प्रबल होनेके कारण स्वदेशी आन्दोलनमें शुद्ध खादी प्रयोगका व्रत ले लिया। आपके क्रान्तिकारी गतिविधियोंमें सक्रिय भाग लेनेके कारण शिमलापालमें २१ माहतक नजरबन्द किया गया। बंगालके क्रान्तिकारियों अरविन्द घोष आदिसे आपका निकट सम्पर्क हुआ। १९१८ में आप बम्बई आ गये। वहाँ लोकमान्य तिलक, लाला लाजपतराय, महात्मा गाँधी, पं०मदनमोहन मालवीय, संगीताचार्य विष्णु दिगम्बरजीसे घनिष्ठï सम्पर्क हुआ। सभीके द्वारा प्रेमपूर्वक आपको भाई सम्बोधन करनेके कारण आपका उपनाम ‘भाईजी’ पड़ गया।
 
श्रीभाईजीमें अपने यश प्रचारका लेश भी नहीं था। इसी कारण उन्होंने ‘रायबहादुर’, ‘सर’ एवं ‘भारतरत्न’ जैसी राजकीय उपाधियोंके प्रस्तावको नम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया। हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा उनकी अमूल्य हिन्दी-सेवाके सम्मानार्थ प्रदत्त ‘साहित्य—वाचस्पति’ की उपाधिका अपने नामके साथ कभी प्रयोग नहीं किये। हालाँकि भाईजीकी शिक्षा पारिवारिक, पारम्परिक ही रही लेकिन यह चमत्कार है कि कई भाषाओं पर उनका असाधारण अधिकार था। सुप्रसिद्ध हिन्दी मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ के १९२६ ई०में प्रकाशन प्रारम्भ होनेपर उसके सम्पादनका गुरुतर दायित्व आपने सफलतापूर्वक निर्वाह किया और अपने भगीरथ प्रयत्नोंसे उसे शिखरपर पहुँचाया। उनके द्वारा सम्पादित ‘कल्याण’के ४४ विशेषांक अपने विषयके विश्वकोष हैं। हमारे आर्ष ग्रन्थोंको विपुल मात्रामें प्रकाशित करके विश्वके कोने-कोनेमें पहुँचा दिये जिससे वे सुदीर्घ कालके लिये सुरक्षित हो गये। हिन्दी और सनातन धर्मकी उनकी सेवा युगोंतक लोगोंके लिये प्रेरणाश्रोत रहेगी।
लोक-पावन-भाई-जी
उनके द्वारा हिन्दी साहित्यको मौलिक शब्दोंका नया भण्डार मिला। उनकी गद्य-पद्यात्मक रचनायें अपने विषयकी मीलकी पत्थर हैं। श्रीभाईजी द्वारा विरचित १०० से अधिक पुस्तकें अबतक प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें उनके काव्य संग्रह ‘पद-रत्नाकर’ के अतिरिक्त ‘राधा-माधव-चिन्तन’, ‘प्रेमदर्शन’, ‘भगवान्ï श्रीकृष्णकी मधुर बाललीलायें’, ‘वेणुगीत’, ‘रासपञ्चाध्यायी’ ‘रस और आनन्द’ तथा ‘प्रेमका स्वरूप’ प्रमुख हैं। उनकी कुछ रचनाओंका विश्वकी कई भाषाओंमें अनुवाद हुआ है। भगवन्नामनिष्ठïाके फलस्वरूप वनवेशधारी भगवान्ï सीतारामके दर्शन हुए तदनन्तर पारसी पे्रतसे साक्षात्ï वार्तालापके परवर्तीकालमें अनेक दिव्यलोकोंसे सम्पर्क स्थापित किये।
 
भगवद्दर्शनकी प्रबलोत्कण्ठा होनेपर १९२७ ई० में भगवान्ï विष्णुने दर्शन देकर उन्हें प्रवृत्तिमार्गमें रहते हुये भगवद्ïभक्ति तथा भगवन्नाम प्रचारका आदेश दिया।
दिव्यलोकोंसे सम्पर्कके साथ ही अलक्षित रहकर विश्वभरके आध्यात्मिक गतिविधियोंके नियामक एवं संचालक दिव्य संत-मण्डलमें अन्तर्निवेश हो गया। कृपाशक्तिपर पूर्णतया निर्भर भक्तपर रीझकर भगवान्ïने समय-समयपर उन्हें श्रीराम, शिव, गीतावक्ता श्रीकृष्ण, श्रीव्रजराजकुमार एवं श्रीराधाकृष्ण दिव्य युगलरूपमें दर्शन देकर तथा अपने स्वरूप तत्त्वका बोध कराकर कृतार्थ किया। १९३६ ई० में गीतावाटिकामें प्रेमभक्तिके आचार्य देवर्षि नारद और महर्षि अंगिरासे साक्षात्कार हुआ और उनसे प्रेमोपदेशकी प्राप्ति हुई। अपने ईष्टï आराध्य रसराज श्रीकृष्ण और महाभावरूपा श्रीराधा किशोरीकी भाव साधना, स्वरूप चिंतनसे उनकी एकाकार वृत्ति इष्टïके साथ प्रगाढ़ होती गयी और वे रसराजके रस- सिन्धुमें निमग्र रहने लगे। भागवती स्थितिमें स्थित होनेसे उनके स्थूल कलेवरमें श्रीराधाकृष्ण युगल नित्य अवस्थित रहकर उनकी सम्पूर्ण चेष्टाओंका नियन्त्रण-संचालन करने लगे। सनकादि ऋषियोंसे उनके वार्तालाप अब छिपी बात नहीं है।
 
भगवत्प्रेरणासे भाईजीने अपने जीवनके बाह्यïरूपको अत्यन्त साधारण रखते हुये इस स्थितिमें सबके बीच ७८ वर्ष रहे। कुछ श्रद्धालु प्रेमीजनोंको छोडक़र उनके वास्तविक स्वरूपकी कोई कल्पना भी नहीं कर सका। जो उनके निकट आये वे अपने भावानुसार इसकी अनुभूति करते रहे। किसीने उन्हें विद्वान्ï देखा, किसीने सेवा-परायण, किसीने आत्मीय स्नेहदाता, किसीने सुयोग्य सम्पादक, किसीने सच्चा सन्त, किसीने उच्चकोटिका व्रजप्रेमी और किसीको राधा हृदयकी झाँकी उनके अन्दर मिली। किसी संतकी वास्तविक स्थितिका अनुमान लगाना बड़ा कठिन है तथापि भाईजी निश्चित रूपसे उस कोटिके सन्त थे जिनके लिये नारदजीने कहा है—‘तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्ï’—भगवान् और उनके भक्तोंमें भेदका अभाव होता है।श्रीभाईजीकी प्रमुख शिक्षायें हैं—
 
(१) सबमें भगवान्ïको देखना
(२) भगवत्कृपापर अटूट विश्वास करना और
(३)भगवन्नामका अनन्य आश्रय ग्रहण करना।
 
हमारी भावी पीढिय़ोंको यह विश्वास करनेमें कठिनता होगी कि बीसवीं सदीके आस्थाहीन युगमें जो कार्य कई संस्थायें मिलकर नहीं कर सकतीं वह कल्पनातीत कार्य एक भाईजीसे कैसे सम्भव हुआ। राधाष्टïमी महोत्सवका प्रवर्तन और रसाद्वैत राधाकृष्णके प्रति नयी दिशा एवं मौलिक चिन्तन इस युगको उनकी महान देन है। उनके द्वारा कितने लोग कल्याण पथपर अग्रसर हुये, वे परमधामके अधिकारी बने इसकी गणना सम्भव नहीं है। महाभाव—रसराजके लीलासिन्धुमें सर्वदा लीन रहते हुये २२ मार्च १९७१ को इस धराधामसे अपनी लीलाका संवरण कर लिये।
 
‘वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम्’
 
आलोक : विस्तृत जानकारीके लिये गीतावाटिका प्रकाशन, गोरखपुरसे प्रकाशित ‘श्रीभाईजी—एक अलौकिक विभूति’ पुस्तक अवश्य पढ़े।
 
महान स्वतंत्रता सेनानी हनुमान प्रसाद पोद्दार गीताप्रेस के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार एक क्रांतिकारी थे और उनके क्रांतिकारी संगठन का नाम था.अनुशीलन समिति। जब वे कोलकाता में थे तब उन्होंने साहित्य संवर्धन समिति की ओर से गीता का प्रकाशन करवाया था जिसके मुख्यपृष्ठ पर भारत माता के हाथों में खड्ग लिए चित्र अंकित था इस कारण कोलकाता प्रशासन ने इस संस्करण को जप्त किया था।
Radha Madhav Ras Sudha
1906 में उन्होंने कपड़ों में गाय की चर्बी के प्रयोग किए जाने के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाया और विदेशी वस्तुओं और विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के लिए संघर्ष छेड़ दिया। युवावस्था में ही उन्होंने खादी और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना शुरू कर दिया। मुंबई में उन्होंने अग्रवाल नवयुवकों को संगठित कर मारवाड़ी खादी प्रचार मंडल की स्थापना की।
 
कलकत्ता में बंदूकए पिस्तौल और कारतूस की शस्त्र कंपनी थी जिसका नाम ष्रोडा आरण्बीण् एण्ड कम्पनीष् था। यह कंपनी जर्मनीए इंग्लैण्ड आदि देशों से बंदरगाहों से शस्त्र पेटियां मंगाती थी। देशभक्त क्रांतिकारियों को अंग्रेजों से लड़ने के लिए पिस्तौल और कारतूस की जरूरत थी लेकिन उनके पास धन नहीं था कि वे खरीद सकें। तब अनुशीलन समिति के क्रांतिकारियों ने शस्त्र पेटियों को चुराने की योजना बनाई और इस काम को हनुमान प्रसाद पोद्दार जी को सौंप दिया गया। हनुमान प्रसाद जी ने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस रोडा बीण्आरण्डीण् कंपनी में एक शिरीष चंद्र मित्र नाम के बंगाली कलर्क था जो अध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे और हनुमान प्रसाद पोद्दार जी को बहुत आदर करते थे ।
 
पोद्दार जी ने इसका फायदा उठाकर उस क्लर्क को अपने पक्ष में कर लिया। एक दिन कंपनी ने शिरीष चंद्र मित्र को कहा समुद्र चुंगी से जिन बिल्टिओं का माल छुड़ाना है वह छुड़ा कर ले आएं। उसने यह सूचना तत्काल हनुमान प्रसाद पोद्दार जी को दे दिया। सूचना पाते ही पोद्दार जी कलकत्ता बंदरगाह पर पहुंच गये। यह बात है 26 अगस्त 1914 बुधवार के दिन की । बंदरगाह पर रोडा कम्पनी की 202 शस्त्र पेटियां आयी हुई थी । जिसमें 80 माउजर पिस्तौल और 46 हजार कारतूस थे जिसे कंपनी के क्लर्क शिरीषचंद्र मित्र ने समुंद्री चुंगी जमा कर छुड़ा लिया।
 
 
 
इधर बंदरगाह के बाहर हनुमान प्रसाद पोद्दार जी शिरीष चंद्र का इंतजार कर रहे थे। इसमें से 192 शस्त्र पेटियां कंपनी में पहुंचा दी गई और बाकी 10 शस्त्र पेटियां हनुमान प्रसाद पोद्दार के घर पर पहुंच गईं। आनन.फानन में पोद्दार जी ने अपने संगठन के क्रांतिकारी साथियों को बुलाया और सारे शस्त्र सौंप दिया।उस पेटी में 300 बड़े आकार की पिस्तौल थी। इनमें से 41 पिस्तौल बंगाल के क्रांतिकारियों के बीच बांट दिया गया बाकी 39 पिस्तौल बंगाल के बाहर अन्य प्रांत में भेज दी गई
काशी गईए इलाहाबाद गयीए बिहारए पंजाबए राजस्थान भी गयी।
 
आगे जब अगस्त 1914 के बाद क्रांतिकारियों ने इन माउजर पिस्तौलों से सरकारी अफसरों ए अंग्रेज को मारने जैसे 45 काण्ड इन्हीं पिस्तौल से सम्पन्न किये गये थे। क्रांतिकारियों ने बंगाल के मामूराबाद में जो डाका डाला था उसमें भी पुलिस को पता चला की रोडा कम्पनी से गायब माउजर पिस्तौल से किया गया है। थोड़ा आगे बढ़ गये थे खैर पीछे लौटते हैं।
 
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी को पेटियों के ठौर.ठिकाने पहुंचाने.छिपाने में पंडित विष्णु पराड़कर ;बाद में कल्याण के संपादक द्ध और सफाई कर्मचारी सुखलाल ने भी मदद की थी। बाद में मामले का खुलासा होने के बाद हनुमान प्रसाद पोद्दारए क्लर्क शिरीष चंद्र मित्र ए प्रभुदयाल ए हिम्मत सिंह ए कन्हैयालाल चितलानियाए फूलचंद चौधरी ए ज्वालाप्रसादए ओंकारमल सर्राफ के विरुद्ध गिरफ्तारी के वारंट निकाले गये।16 जुलाई 1914 को छापा मारकर क्लाइव स्ट्रीव स्थित कोलकाता के बिरला क्राफ्ट एंड कंपनी से हनुमान प्रसाद पोद्दार जी को गिरफ्तार कर लिया गया। शेष लोग भी पकड़ लिये गये। सभी को कलकता के डुरान्डा हाउस जेल में रखा गया। पुलिस ने 15 दिनों तक सभी को फांसी चढ़ानेए काला पानी आदि की धमकी देकर शेष साथियों का नाम बताने और माल पहुंचाने की बात उगलवाना चाहा लेकिन किसी ने नहीं उगला। पोद्दार जी के गिरफ्तार होते ही माड़वाड़ी समाज में भय व्याप्त हो गया। पकड़े जाने के भय से इनके लिखे साहित्य को लोगों ने जला दिया। पर्याप्त सबूत नहीं मिलने के बाद हनुमान प्रसाद पोद्दार जी छूट गये। इसका दो कारण था । पहला कि शस्त्र कंपनी के कलर्क शिरीष चंद्र मित्र बंगाल छोड़ चुके थे इसलिए गिरफ्तार नहीं किये जा सके। दूसरा कारण. तमाम अत्याचार के बाद भी किसी ने भेद नहीं उगला था।
 
वे लोकमान्य बाळ गंगाधर टिळक के लेखों से बहुत प्रभावित थे। वीर सावरकर द्वारा लिखे गए श्1857 का स्वातंत्र्य समर ग्रंथश् से पोद्दार जी बहुत प्रभावित हुए जेल मुक्त होने के बाद वे 1938 में वीर सावरकर जी मुंबई तक मिलने गए। उनका सम्पर्क नेताजी सुभाषचन्द्र बोसएमहात्मा गांधीजी सहित कई क्रान्तिकारीं और स्वतंत्रता संग्राम के नेताओ से रहा था।
 
इस घटना से छः साल पूर्व 1908 में जो बंगाल के मानिकतला और अलीपुर में बम कांड हुआ उसमें भी अप्रत्यक्ष रूप से गीताप्रेस गोरखपुर के संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार शामिल रहे। उन्होंने बम कांड के अभियुक्त क्रांतिकारियों की पैरवी की। पोद्दार जी का भुपेन्द्रनाथ दत्तए श्याम सुंदर चक्रवर्ती ए ब्रह्मवान्धव उपाध्याय ए अनुशीलन समिति के प्रमुख पुलिन बिहारी दासए रास बिहारी बोसए विपिन चंद्र गांगुलीए अमित चक्रवर्ती जैसे क्रांतिकारियों से सदस्य होने के कारण निकट संबध था। अपनी धार्मिक कल्याण पत्रिका बेचकर क्रांतिकारियों की पैरवी करते थे। बाद में कोलकता में गोविंद भवन कार्यालय की स्थापना हुई तो पुस्तक और कल्याण पत्रिका के बंडल के नीचे क्रांतिकारियों के शस्त्र छुपाये जाते थे।
 
इतना ही नहींए खुदीराम बोसए कन्हाई लाल ए वारीन्द्र घोषए अरबिंद घोषए प्रफुल्ल चक्रवर्ती के मुकदमे में भी अनुशीलन समिति की ओर से हनुमान प्रसाद पोद्दार ने पैरवी की थी। उन दिनों क्रांतिकारियों की पैरवी करना कोई साधारण बात नहीं थी। भारत विभाजन की मांग पर कांग्रेसी नेता जिन्ना के सामने चुप रहते थे तो गीताप्रेस की कल्याण पत्रिका पुरजोर आवाज में कहती थी.. ष्जिन्ना चाहे दे दे जानए नहीं मिलेगा पाकिस्तानष् कहकर ललकारता था। यह पंक्ति कल्याण के आवरण पृष्ठ पर छपता था।पाकिस्तान निर्माण के विरोध में कल्याण महीनों तक लिखता रहा।
 
गीता प्रेस की कल्याण पत्रिका ऐसी निडर पत्रिका थी कि उसने अपने एक अंक में प्रधानमंत्री नेहरू को हिंदू विरोधी तक बता दिया था। इसने महात्मा गांधी को भी एक बार खरी.खोटी सुनाते हुए कह डाला था.. ष्महात्मा गांधी के प्रति मेरी चिरकाल से श्रद्धा है पर इधर वे जो कुछ कर रहे हैं और गीता का हवाला देकर हिंसा.अहिंसा की मनमानी व्याख्या वे कर रहे हैं उससे हिंदुओं की निश्चित हानि हो रही है और गीता का भी दुरपयोग हो रहा है।ष् जब मालवीय जी हिंदुओं पर अमानवीय अत्याचारों की दिल दहला देने वाली गाथाएं सुनकर द्रवित होकर 1946 में स्वर्ग सिधार गये तब गीता प्रेस ने मालवीय जी की स्मृति में कल्याण का श्रद्धांजली अंक निकाला। इसमें नोआखलीए खुलना तथा पंजाब सिंध में हो रहे अत्याचारों पर मालवीय जी की ह्रदय विदारक टिप्पणी प्रकाशित की गई थी। जिसे उत्तर प्रदेश और बिहार के कांग्रेसी सरकार ने श्रद्धांजली अंक को आपतिजनक घोषित करते हुए जब्त कर लिया था।
जब भारत विभाजन के समय दंगा शुरू हो गया था और पाकिस्तान से हिंदुओ पर अत्याचार की खबर आ रही थी तब भी गीताप्रेस ने कांग्रेस नेताओं पर खूब स्याही बर्बाद की थी। तब कल्याण ने अपने सितम्बर.अक्टूबर 1947 के अंक में यह लिखना शुरू कर दिया था. ष्हिंदू क्या करेंश् इन अंको में हिंदूओं को आत्मरक्षा के उपाय बताया जाता था।
 
22 मार्च 1971 को इस महान विभूति का महाप्रयाण हुवा था।
 
नमन।
 
वन्देमातरम।भारत माता की जय।जयहिंद।
धन्यबाद अपना कीमती समय देने के लिए